Monday, 29 August 2011

अस्थि विसर्जन 20 मई, 2011

स्वर्गीय कृष्णचन्द्र जी भार्गव (भैया जी)
अस्थि विसर्जन कार्यक्रम-20 मई, 2011
पुष्कर (अजमेर)

Sunday, 14 August 2011

प.पू.सरसंघचालक जी का राजसमन्द प्रवास


दैनिक भास्कर-13.8.2011
राजसमन्द (पेज नम्बर-11 और 12)








प्रतिकार शक्ति बढ़ानी होगी
14 August, 2011 [राजस्थान पत्रिका]

       राजसमंद। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक मोहन भागवत ने कहा कि कमजोर प्रतिरोधक क्षमता वाले शरीर पर बीमारी तेजी से वार करती है। क्षमता मजबूत हो, तो रोग आस-पास नहीं फटकता। इसलिए देश और समाज को रोगों  से बचाना है, तो प्रतिकार शक्ति बढ़ानी होगी।
        केलवा में चातुर्मासरत् तेरापंथ धर्मसंघ के 11वें आचार्य महाश्रमण की मौजूदगी में शनिवार को आयोजित कार्यक्रम में हजारों स्वयंसेवकों को सम्बोघित करते हुए भागवत ने कहा कि राष्ट्रीयता की मूल भावना में हर मुश्किल का समाधान छिपा है। आजादी मिल गई, मगर बड़ी, जटिल और पुरानी कठिनाइयां मौजूद हैं। उनका हल नहीं हो पाया, लेकिन स्वयंसेवक इनसे निराश नहीं होता। हर आदमी से आत्मीय भावना का विकास और विस्तार ही संघ का मुख्य मकसद है।
मकसद देश का ‘संघ’ रूप में स्थापित करना
        उन्होंने साफ कहा कि स्वयंसेवक की अवधारणा के मूल में हर देशवासी से आत्मीय भाव रखने की भावना बसी है। प्रत्येक देशवासी से मिलनसारिता बढ़ाना, चाहे वह किसी भी धर्म, जाति, सम्प्रदाय या प्रांत का हो और पूरे देश को एक संघ  के रूप में स्थापित करना ही एकमात्र मकसद है। जिस दिन यह सपना सच हो गया, भारत अपनी समस्याओं से मुक्ति पा लेगा।
‘संघ का अनुशासन अनुकरणीय’
        इस मौके पर आचार्य महाश्रमण ने कहा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अनुशासनबद्धता और देशभक्ति के संस्कार देखकर प्रभावित हूं। उन्होंने कार्यकर्ता का विवेचन करते हुए कहा कि जो दूसरों के लिए कार्य करता है, उपकार करता है या सेवा करता है, वह कार्यकर्ता है। कार्यकर्ता के लिए पांच मूल्य सहिष्णुता, विनम्रता, निर्भीकता, दक्षता और नैतिकता होना जरूरी बताते हुए आचार्य ने कहा कि भीतर साहस और समर्पण का दीप जलाएं, तभी अच्छा कार्यकर्ता बना जा सकेगा |

संघ समाचार 

        राजसमंद- 13 अगस्त। हम समाज की रक्षा के लिए व्रत का धारण करें, धर्म की रक्षा करें, धर्म हमारी रक्षा स्वत: करेगा। उक्त उद्गार राष्ट्रीय स्वयंसवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहनराव भागवत ने शनिवार को केलवा में आयोजित कार्यक्रम के दौरान व्यक्त किए। यह जानकारी देते हुए जिला संघचालक चन्द्रप्रकाश चौरडिया ने बताया कि संरसंघचालक के राजसमंद आगमन पर शनिवार को रक्षाबंधन के  दिन संघ के स्वयंसेवकों का जिला समागम केलवा में सम्पन्न हुआ। सभी स्वयंसेवक अपेक्षित  वेश   नेकर, सफेद कमीज तथा टोपी पहनकर अनुशासित रूप से प्रवचन पाण्डाल में एकत्रित हुए। जिले  की सभी तहसीलों से स्वयंसेवक बस तथा अन्य वाहनों द्वारा केलवा पहुंचे। प्रार्थना एवं काव्य गीत के बाद भागवत ने स्वयंसेवकों को सम्बोधित करते  हुए कहा कि संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार स्वतंत्रता से पूर्व  आंदोलनों में प्रमुख कार्यकर्ता थे। सम्पूर्ण समाज को संगठित करने के लिए उन्होंने संघ की स्थापना की। स्वतंत्रता के पश्चात देश में व्यवस्थाएं बेहतर होनी चाहिए थीं लेकिन समस्याएं बढती जा रहीं हैं। इस हेतु व्यक्ति निर्माण से समाज निर्माण करना होगा।  भाषा, प्रान्त, सम्प्रदाय से जुड़ी छोटी-छोटी बातों से भावनाएं भडक़तीं हैं और हम आपस में ही एक-दूसरे का खून बहाते हैं। ऐसे समय में संघ का स्वयंसेवक सम्पूर्ण भारत को अपना मानकर राष्ट्र के प्रति प्रेम प्रकट करता है। उसके नित्य व्यवहार में राष्ट्र क प्रति प्रेम प्रकट होता है। सम्पूर्ण समाज के विरूद्ध काई बात भले ही स्वयं के लाभ की हो परंतु फिर भी वह स्वयं का नुकसान करके भी देश के लिए ही कार्य करेगा। हमारा कार्य मनुष्य निर्माण करना है, समाज की हिम्मत बढ़ाना है, और यह कार्य आपस में मिलने से ही होता है। स्वयंसेवक को इसके जिए स्वयं में सुधार करके छोटी-छोटी बातें ठीक करके समाज को सिखाने के लिए समय देना होगा। स्वयं से प्रारम्भ करके परिवार, समाज एवं देश निर्माण क लिए संकल्प एवं प्रयास करें। समाज भाषणों  से नहीं सीखता है, वह देखकर सीखता है तथा सीखकर उसी के अनुरूप आचरण करता है।  आज भ्रष्टाचार को लेकर एक बहुत बड़ा आन्दोलन देशभर में चल रहा है लेकिन इसके साथ मूल में परिवर्तन करना होगा। खुद स्वनिर्माण का कार्य हाथ में लेना होगा। व्यक्ति निर्माण के साथ समाज निर्माण करना होगा। उसके बाद  अपने आप व्यवस्था में परिवर्तन हो जाएगा। आचार्यश्री महाश्रमण ने स्वयंसेवकों को आशीवर्चन प्रदान करते हुए कहा कि कार्यकर्ता की प्रथम भावना एवं कसौटी सेवा की भावना है। कार्यकर्ता में सहिष्णुता, नम्रता एवं निर्भीकता होनी चाहिए। गुणात्मकता का विकास होना चाहिए। कुल का हित हो तो स्वयं का हित का त्याग एवं राष्ट्र का हित हो तो गांव के हित का त्याग करना चाहिए। उन्होंने कहा कि व्यक्ति के सुधरने से समाज सुधरेगा और समाज के सुधरने से राष्ट्र अपने आप ही अच्छा हो जाएगा। 



















14 August, 2011

एक बार फिर भारत को विश्व का पथ प्रदर्शक बनना होगा।

        राजसमंद- केलवा में शुक्रवार को आचार्य महाश्रमण की उत्तराध्ययन व श्रीमद्भागवत गीता पर आधारित पुस्तक 'सुखी बनो' का विमोचन करने आए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने कहा है कि एक बार फिर भारत को विश्व का पथ प्रदर्शक बनना होगा। भागवत शनिवार को केलवा में संघ के स्वयंसेवकों के समागम में भाग लेंगे। 
        इस मौके पर भागवत ने कहा कि आचार्य तुलसी के समय से संघ व तेरापंथ धर्मसंघ का सौहार्दपूर्ण और बौद्धिक सम्पर्क बना। इसके बाद से ही दोनों का सम्पर्क जारी है। दोनों का उद्देश्य देश में सौहार्द स्थापित करना है। भागवत ने आचार्य महाश्रमण की पुस्तक 'सुखी बनो' को सारगर्भित बताया। आचार्य महाश्रमण ने कहा कि श्रीमद्भागवत गीता भारतीय वांङग्मय का महत्वपूर्ण ग्रंथ है। 
       इसके 18 अध्याय हैं। प्रवेश युद्ध के प्रसंगों से होता है, पर आगे जाने के बाद इसमें अध्यात्म का मनोहर उपवन दृष्टिगोचर होता है। गीता जहां नितांत पद्यमय ग्रंथ है। वहीं उत्तराध्ययन पद्या और ग्रन्थ दोनों से परिपूर्ण है। उत्तराध्ययन 36 अध्याय रूपी पुष्पों से गुणित ऎसा ग्रंथ है जो आध्यात्म का सुंदर मार्गदर्शन करना है।















Friday, 12 August 2011

साम्प्रदायिक और लक्षित हिंसा अधिनियम,2011

साम्प्रदायिक और लक्षित हिंसा अधिनियम,2011
(21वीं शताब्दी का काला कानून)

पांचजन्य साप्ताहिक -12 जून, 2011

सोनिया सलाहकार परिषद ने की 
देश बांटने की तैयारी
‘प्रिवेंशन आफ कम्युनल एण्ड टारगेटिड वायलेंस बिल 2011’
 के जरिए हिन्दुस्थान के हिन्दुओं का दमन सेकुलर षड़यन्त्र 

प्रो. राकेश सिन्हा

       बाल गंगाधर तिलक, महर्षि अरविन्द, लाला लाजपत राय, स्वामी दयानन्द सरस्वती जैसी राष्ट्रवादी विभूतियों की बात तो दूर सोनिया पार्टी की की मुस्लिम तुष्टीकरण राजनीति अगर इसी रफ्तार से जारी रही तो समाजवादी आचार्य कृपलानी,  मार्क्सवादी बी.टी. रणदिवे, सर्वोदय नेता लोकनायक जयप्रकाश नारायण जैसे लोगो पर भी साम्प्रदायिक विद्वेष फैलाने, कथित अल्पसंख्यकों को आहत करने एवं दुष्प्रचार करने के आरोप लग सकते है। फिर न सिर्फ उनके लेखों एवं प्रकाशित भाषणों पर प्रतिबंध लग सकता है बल्कि उन सब पर मरणोपरांत मुकदमा भी चल सकता है। यह बात अतिशयोक्ति नहीं, एक कटु सत्य है। जे.पी. पर 1946 में मुस्लिम लीग ने सूखा/बाढ़ राहत के दौरान हिन्दुओं को मुस्लिमों के खिलाफ भड़काने का आरोप लगाया था। केरल में मार्क्सवादी सरकार द्वारा पचास के दशक में नई शिक्षा नीति लागू की गई थी। तब ईसाईयों ने उसका जमकर विरोध किया था। उस समय रणदिवे ने कैथोलिक समुदाय को प्रतिक्रियावाद का एजेंट कहकर उन पर विदेशी धन का दुरूपयोग करने का आरोप लगाया था। आचार्य कृपलानी के भाई का ईस्लाम में मत परिवर्तन कराया गया था। उसने अपने एक और भाई का अपहरण कर उसे जबरन ईस्लाम में मतान्तरित करा लिया था। तब कृपलानी ने ईस्लाम पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि यह व्यक्ति को क्रूर बनाकर उसमें मजहब के प्रति अंधानुराग पैदा कर देता है। ये सभी बातें आपराधिक कानून के अंतर्गत आ जाएंगी यदि इप्रिवेंशन आफ कम्युनल एंड टारगेटिड वायलेंस बिल-2011 कानून बन जाता है तो।
जहर बुझा मसौदा
       इस विधेयक के मसौदे पर गौर करें तो ऊपर कही गई बातों से कहीं अधिक घातक षडयंत्र से पर्दा उठता है। विधेयक में कुल नौ अध्याय है और 138 धाराएं है। सबसे दिलचस्प बात यह है कि यह विधेयक आखिरकार क्यों लाया जा रहा है और इसका उद्धेश्य क्या है, इस पर एक शब्द भी नहीं है। अर्थात कोई प्रस्तावना नहीं है। विधेयक के पहले अध्याय में अवधारणाओं को परिभाषित किया गया है। यही परिभाषा संविधान, समाज और शासन तंत्र को तार तार कर देती है। यह देश के नागरिकों के आपस में शत्रुतापूर्ण भाव रखने वाले दो वर्ग बना देती है। एक वर्ग में पांथिक और भाषायी अल्पसंख्यकों तथा अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों को रखा गया है। इसे ग्रुप के द्वारा सम्बोधित किया गया है। अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए अलग आयोग और कानून हैं। उन्हें हर जगह ‘अल्पसंख्यक मंसूबों’ पर पर्दा डालने के लिए ढाल के रूप में उपयोग किया जा रहा है। इसके पहले भी सच्चर कमेटी की अनुशंसा पर अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय द्वारा प्रास्तावित ‘समान अवसर आयोग विधेयक’ में भी कथित अल्पसंख्यकों के साथ अनुसूचित जातियों को रखा गया था। भाषायी अल्पसंख्यकों का वजूद क्या है, यह रंगनाथ मिश्र आयोग (राष्ट्रीय भाषायी और पांथिक अल्पसंख्यक आयोग) के मसौदे से जाहिर होता है। भाषायी अल्पसंख्यकों के अस्तित्व पर ही आयोग ने सवाल खड़ा कर दिया है। अतः यहाँ ग्रुप का तात्पर्य मूलतः मुस्लिम और ईसाई समुदायों से है। ग्रुप से बाहर के लोगो को अन्य माना गया है। भारत के नागरिकों को दो अलग और शत्रुतापूर्ण भाव रखने वाले वर्गों में विभाजित करने के बाद ‘साम्प्रदायिक दंगा’, ‘लैंगिक अपराध’, ‘विद्वेष पूर्ण प्रचार’ इत्यादि को परिभाषित किया गया है। इसके अनुसार, दो सम्प्रदायों के बीच हिंसक वारदात को दंगा माना जाएगा। इस विधेयक के अनुसार, सिर्फ अल्पसंख्यक यानि ग्रुप के सदस्यों की जान-माल की किसी भी प्रकार की क्षति ‘ साम्प्रदायिक और उद्धेश्यपूर्ण हिंसा’ मानी जाएगी। अगर हिन्दुओं की जान-माल की क्षति अल्पसंख्यकों सदस्यों द्वारा पहुंचायी जाती है तो यह ‘साम्प्रदायिक या उद्धेश्यपूर्ण हिंसा नहीं मानी जाएगी। (देखें, धारा 3 (3) ) अल्पसंख्यक समुदाय के किसी व्यक्ति के व्यापार में बाधा पहुंचाने या जीविकोपार्जन में अड़चन पैदा करने या सार्वजनिक रूप से अपमान करने को ‘शत्रुतापूर्ण वातावरण बनाने वाला अपराध’ माना गया है। कोई हिन्दू मारा जाता है, घायल होता है, उसकी सम्पत्ति नष्ट हो जाती है, वह अपमानित होता है, उसका बहिष्कार होता है तो यह कानून उसे ‘पीडि़त’ नहीं मानेगा। ‘पीडि़त’ व्यक्ति इस मसौदे के अनुसार सिर्फ वही है जो इस ग्रुप का सदस्य है। अगर हिन्दू महिला अल्पसंख्यक वर्ग के किसी दुराचारी द्वारा बलात्कार का शिकार बनाई जाती है तो यह कानून उसे बलात्कार नहीं मानेगा। इस विधेयक (धारा 7) के अनुसार, अगर अल्पसंख्यक समुदाय की महिला के साथ कोई इस प्रकार की घटना ग्रुप के बाहर के व्यक्ति के द्वारा घटती है तो उसे लैंगिक अपराध के लिए दोषी माना जाएगा। अर्थात इमराना के श्वसुर द्वारा इमराना के साथ ‘बलात्कार’ करना इस मसौदे के अनुसार बलात्कार नहीं था।
न बहस, न विमर्श
       इसमें ‘गवाह’ की नई परिभाषा  रखी गई है। अल्पसंख्यकों के साथ घटी घटना की जानकारी  रखने वाला ही ‘गवाह- होगा। इसके अनुसार बहुसंख्यकों के सम्बन्ध में जानकारी रखने वाला गवाह नहीं माना जाएगा। ‘दुष्प्रचार को दूसरे अध्याय की धारा-8 में इस तरह परिभाषित किया गया है कि इतिहास में से लाल-बाल-पाल जैसे चिंतकों का लिखा तो प्रतिबंधित हो ही जाएगा, पंथ निरपेक्षता पर वैकल्पिक बहस भी समाप्त हो जाएगी। आप बाईबिल, कुरान, मुस्लिम पर्सनल ला, मुस्लिम रीतियों-कुरीतियों, अल्पसंख्यक मांगों-आन्दोलनों-संगठनों पर टीका -टिप्पणी, विमर्श नहीं कर सकते हैं। कोई भी ‘दूसरा’ व्यक्ति (यानि हिन्दू) अगर बोलकर या लिखकर या विज्ञापन, सूचना या किसी भी तरह से ऐसा ‘कुछ’ भी करता है जिसे अल्पसंख्यक समुदाय के किसी व्यक्ति या समुदाय के विरूद्ध भड़काऊ स्थिति पैदा करने वाला मान लिया जाता है तो उसे दुष्प्रचार/घृणा फैलाने का अपराधी माना जाएगा। इतिहासकार मुशीरूल हसन ने तो लाल-बाल-पाल पर अल्पसंख्यकों को स्वतंत्रता आन्दोलन में अलग-थलग करने का दोषी माना था। यानि अब लाल-बाल-पाल को प्रकाशित करने, पढ़ने और उद्धृत करने वाले जेल जाने के लिए तैयार रहें। 
       विधेयक में कोई कसर नहीं छोड़ी गई है। हिन्दू संगठनों को निशाना किस चतुराई से बनाया गया है, इसे देखिए। अगर कोई बहुसंख्यक समाज का व्यक्ति अल्पसंख्यक समाज के लिए उपरोक्त किन्हीं अपराधों का दोषी है तो उस संगठन के मुखिया पर भी आपराधिक कानून लगाया जाएगा जिससे उसका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सम्बन्ध है। संगठन भले ही पंजीकृत हो या न हो। मान लीजिए, किसी गांव या शहर में कोई क्लब या रामलीला कमेटी है। उसका कोई सदस्य अल्पसंख्यक व्यक्ति पर छींटाकशी या उसका बहिष्कार करता है या व्यापार में परस्पर झगड़ा हो जाता है तो उस क्लब या रामलीला कमेटी के पदाधिकारियों पर आपराधिक मुकदमा चलेगा। व्यापार एवं रोजगार में यह विधेयक समुदायों के बीच अंतर निर्भरता को पूरी तरह समाप्त कर देगा, राष्ट्र के बीच एक अघोषित साम्प्रदायिक राष्ट्र को जन्म देगा। 
हिन्दू ही होगा अपराधी
       बचाव का बस यही रास्ता रह जाएगा कि बहुसंख्यक अल्पसंख्यकों के मन, मानसिकता, मस्तिष्क के अनुकूल व्यवहार करें एवं दासत्व के भाव से रहें। किसी अल्पसंख्यक ने बहुसंख्यक से रोजगार या किराए पर घर मांग लिया तो बिना योग्यता या अनुकूलता का विचार किए आप यदि हां नहीं कहेंगे तो आप आपराधिक कानून के शिकार होंगे। शिया-सुन्नी, ईसाई-मुस्लिम झगड़े पर यह कानून लागू नहीं होगा। उन्हें दंगा करने का कथित विशेषाधिकार दिया गया है। अनुसूचित जाति या जनजातियों को इस मसौदे में इसलिए रखा गया है कि अगर आप उन पर ईसाई मिशनरियों द्वारा सुनियोजित मतान्तरण या इस्लामिक पेट्रो डालर का उपयोग करने का आरोप लगाएंगें, सत्य उजागर करेंगे तो आप पर आपराधिक कानून लागू होगा। एक और बात गौरतलब है कि इस मसौदे में कोई आरोपित नहीं बल्कि हर आरोपित स्वतः अपराधी मान लिया गया है। उसे ही साबित करना पडेगा कि वह अपराधी नहीं है। 
       पुलिस एवं नौकरशाही को अल्पसंख्यकों का जैसे अन्तःवस्त्र बनाकर रख छोड़ा गया है। कहीं भी कोई कथित अल्पसंख्यकों के विरूद्ध दुष्प्रचार, घृणा फैलाने वाला माहौल बना, कोई पोस्टर या लेख प्रकाशित हुआ या अल्पसंख्यक समुदाय के किसी व्यक्ति के जान-माल की कथित रूप से क्षति हुई तो पुलिस और प्रशासन को समान रूप से जिम्मेदार माना जाएगा। उन पर आपराधिक मुकदमा चलेगा। उनके लिए अपनी खाल बचाने का एक मात्र यही रास्ता होगा कि कही भी कोई अंदेशा हो या न हो, हिन्दुओं को गिरफ्तार करते रहें। हिन्दुओं के खिलाफ दुष्प्रचार, हिन्दू देवी-देवताओं का अपमान या जान-माल की जितनी क्षति हो जाए पुलिस प्रशासन को परेशान होने की आवश्यकता नहीं होगी।
       इस विधेयक ने दो प्रकार के आपराधिक कानून बनाए हैं। अब तक मुसलमानों के पास वैयक्तिक कानून था। अब अलग आपराधिक कानून भी उन्हें परोसा जा रहा है। इस विधेयक के मसौदे का लक्ष्य एक देश-दो विधान ही नहीं, बल्कि इसने तो देश के संघीय ढ़ांचे को भी नष्ट करने का इंतजाम किया है। किसी भी राज्य में साम्प्रदायिक स्थिति को ‘आंतरिक गड़बड़ी’ की संज्ञा  देकर संविधान की धारा 355 के अन्तर्गत केन्द्र से हस्तक्षेप करने की अनिवार्य अपेक्षा की गई है। सामान्य विधि के आधार पर यह पूरे संविधान में फेरबदल की साजिश नहीं तो और क्या है ? 
       राष्ट्रीय स्तर पर एवं राज्यों में इसके लिए एक प्राधिकार बनाया गया है। इसमें सात सदस्यों में से चार का अल्पसंख्यक होना अनिवार्य है। उनके अन्तर्गत पुलिस, प्रशासन और न्यायपालिका का अधिकार होगा। आरोपित व्यक्ति चाहे पुलिस या प्रशासनिक अधिकारी या हिन्दू नागरिक हो, अपराधी मान लिया जाएगा। इसकी धारा 58, 73 एवं 74 में ‘पोटा’ जैसे प्रावधान हैं। हिन्दुओं की स्थिति नाजी जर्मनी के यहूदियों की तरह बना दी गई है। वे कथित अल्पसंख्यकों पर जुल्म के जिम्मेदार होंगे। यह विधेयक मानता है कि घृणा, दुष्प्रचार, दंगा करना, असंवेदनशीलता आदि हिन्दुओं का ‘चरित्र’ है। इसे ऐतिहासिक सच और समकालीन वास्तविकता मान लिया गया है। और इसी ‘चरित्र’ पर नियंत्रण करने के लिए ‘सोनिया सलाहकार परिषद’ ने यह विधेयक तैयार किया है। ‘भारत की पुलिस, प्रशासन एवं न्यायपालिका पूर्वाग्रहयुक्त एवं अल्पसंख्यक विरोधी’ है। इसे स्थापित किया गया है।
वही सेकुलर जमावड़ा
       आखिर यह खुराफाती साजिश किसके दिमाग की उपज है ? सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने यह विधेयक तैयार किया है। इस संविधानेतर संस्था में तीस्ता सीतलवाड़, हर्ष मंदर, जान दयाल जैसे वे नाम हैं जो विदेशी पैसे, प्रेरणा एवं प्रभाव के आरोपों में गले-गले डूबे हैं। यह विधेयक मुस्लिम-ईसाई प्रवक्ताओं द्वारा मुस्लिम-ईसाईयों का हिन्दुओं को प्रताडि़त करने के लिए तैयार किया गया विष का पिटारा है जो खुलते ही समाज को साम्प्रदायिक तनाव एवं अराजक स्थिति में ला खड़ा करेगा। यह हिन्दुओं को खलनायक बनाकर इस देश में साम्प्रदायिक राज स्थापित करने की साजिश है जो भारत की एकता-अखंडता को चुनौती दे रही है। 1930 एवं 40 के दशक में मुस्लिम लीग ने तो विधान मंडलों में अल्पसंख्यक वीटो हासिल किया था। ‘सोनिया सलाहकार परिषद’ ने तो सड़क से लेकर संसद तक ‘अल्पसंख्यक वीटो’ को कानूनी जामा पहनाने का काम किया है। यह विधेयक अपने गर्भ में गृह युद्ध के भ्रूण पाल रहा है। यदि इसकी भ्रूण-हत्या नहीं की गई तो हिन्दू समाज नाजी जर्मनी का यहूदी समुदाय बनकर रह जाएगा। कुछ मसौदें ऐसे होते हैं जिन पर विमर्श होता है, कुछ पर विवाद, कुछ का उपहास होता है तो कुछ को कूड़ेदान में डाल दिया जाता है। स्वतंत्र भारत के इतिहास का यह पहला मसौदा है जिस पर ये सभी प्रतिक्रियाएं कम पड़ जाती हैं, इसे तो बस जला देने की आवश्यकता है।


बेचो और खाओ
राजस्थान पत्रिका, जून 1, 2011


       भारतवर्ष एक पुरातन, बहुभाषी और सांस्कृतिक विभिन्नता वाला राष्ट्र है। यहां लोकतंत्र भी अखण्डता, एकता और सम्प्रभुता के चिन्तन पर आधारित है। देश के बंटवारे के साथ हिन्दू-मुस्लिम एक विरोधाभासी सम्प्रदाय के रूप में उभरने लगे। राजनेताओं ने इस विचारधारा को खूब हवा दी। गंगा-जमुनी संस्कृति को आमने-सामने खड़ा कर दिया।
       देश टूटने लगा और नफरत की बढ़ती आग में नेता रोटियां सेकने लगे। जब इससे भी पेट नहीं भरा, तब अल्पसंख्यक शब्द का अविष्कार कर डाला। अच्छे भले मुख्य धारा में जीते लोगों को मुख्य धारा से बाहर कर दिया। अपने ही देश में लोग द्वितीय श्रेणी के नागरिक बन गए। उनके ‘कोटे’ निर्घारित हो गए। जन प्रतिनिघियों की क्रूरता की यह पराकाष्ठा ही है कि संविधान में बिना ‘बहुसंख्यक’ की व्याख्या किए ‘अल्पसंख्यक’ शब्द को थोप दिया गया।  आप अल्पसंख्यकों को पूछें कि क्या उत्थान का चेहरा देखा?
       राजनीति में संवेदना नहीं होती। अब तो लोकतंत्र में भी कांग्रेस-भाजपा के प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री होने लग गए। राष्ट्र और राज्यों का प्रतिनिघि कोई भी दिखाई नहीं देता। कोई किसी का रहा ही नहीं। कोई किसी को फलता-फूलता सुहाता ही नहीं। बस सत्ता-धन लोलुपता रह गई। इनका भी अपराधीकरण नेताओं ने ही किया। देश के सीने पर फिर आरक्षण के घाव किए गए। विष उगलने लगे, अपने ही गांव वाले, पड़ोसी। घर बंट गए, कार्यालय बंट गए।
       एकता और अखण्डता को मेरे ही प्रतिनिघियों ने तार-तार कर दिया। नेताओं ने खूब जश्न मनाया। अब इन नासूरों से मवाद आने लगा है। आम आदमी कराह रहा है। आरक्षण के अनुपात (प्रतिशत) की सूची देखें तो सभी अल्पसंख्यक नजर आएंगे। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद जिस ‘साम्प्रदायिक एवं लक्षित हिंसा निरोधक बिल-2011′ को कानूनी जामा पहनाना चाहती है, बहुसंख्यकों के विरूद्ध, उसे पहले परिभाषित तो करे। किसको बहुसंख्यक के दायरे में रखना चाहेगी?
       हाल ही में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की ओर से जारी इस बिल के मसौदे को पढ़कर लगता है कि हमने क्यों आजादी के लिए संघर्ष किया था। क्यों हमने जन प्रतिनिघियों को देश बेचने की छूट दे दी। क्यों हमने समान नागरिकता के अघिकार को लागू नहीं किया? क्यों हमने कश्मीर को अल्पसंख्यकों के हवाले कर दिया और वोट की खातिर तीन करोड़ (लगभग) बांग्लादेशी अल्पसंख्यकों को भारत में अनाघिकृत रूप से बसने की छूट दे दी।
       इस नए बिल को देखकर तो लगता है कि हमारे नीति निर्माता पूरे देश को ही थाली में सजाकर पाकिस्तान के हवाले कर देना चाहते हैं। आश्चर्य है कि परिषद के साथ-साथ उसके अध्यक्ष ने भी बिल तैयार करके सरकार के पास भेज दिया। ऎसा घिनौना बिल आजादी के बाद पढ़ने-सुनने में भी नहीं आया। घिक्कारने लायक है। राष्ट्रीय स्तर के कानून बनाने के लिए संसद, संविधान एवं राष्ट्रीय एकता परिषद के होते हुए किसी नागरिक परिषद की आवश्यकता ही क्या है? क्यों बना रखी है सफेद हाथी जैसी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद?
       बिल कहता है कि जब साम्प्रदायिक दंगे हों तो इसका दोष केवल बहुसंख्यकों के माथे ही मढ़ा जाए। अल्पसंख्यकों को मुक्त ही रखा जाए। तब अल्पसंख्यक अपराघियों के मन में भय कहां रहेगा? वे कभी भी बहुसंख्यकों के विरूद्ध कुछ भी उत्पात खड़ा कर सकते हैं। तब कश्मीर के अल्पसंख्यक कभी भी सेना के जवानों के विरूद्ध कोई भी शिकायत कर सकते हैं। जांच में उनको तो दोषी माना ही नहीं जाएगा। आज जिस  आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल प्रोटेक्शन एक्ट ने सेना को कश्मीर और उत्तर पूर्व में सुरक्षित रखा हुआ है, वह भी बेअसर हो जाएगा। बांग्लादेशी भी अल्पसंख्यकों के साथ जुड़े ही हैं।
       दोनों मिलकर आबादी का 20 प्रतिशत हिस्सा हैं।  क्या अपराध भाव किसी के ललाट पर लिखा होता है? क्या अफगानिस्तान, पाकिस्तान जैसे देशों में यही अल्पसंख्यक आतंकवाद के सूत्रधार नहीं है और यहां किसी तरह की साम्प्रदायिक हिंसा में लिप्त नहीं होने की कसम खाकर पैदा होते हैं। आपराघिक प्रवृत्ति व्यक्तिगत होती है। इसे किसी समूह पर लागू नहीं किया जा सकता जैसा कि यह प्रस्तावित बिल कह रहा है। इसी प्रकार नेकी या उदारता भी सामूहिक रूप से लागू नहीं की जा सकती।
       एक अन्य घोषणा भी आश्चर्यजनक है। दंगों की अथवा अल्पसंख्यक की शिकायत पर होने वाली जांच में जो बयान अल्पसंख्यक देता है, उस बयान के आधार पर अल्पसंख्यक के विरूद्ध किसी प्रकार की कानूनी कार्रवाई नहीं होगी या कार्रवाई का आधार नहीं बनेगा। याद है न, जब दहेज विरोधी कानून बना था, तब किस प्रकार लड़के वालों की दुर्दशा करते थे पुलिस वाले। झूठी शिकायतों पर? किस प्रकार अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण अघिनियम के हवाले से बिना जांच किए सजा देते हैं। अपने ही देशवासी कानून के पर्दे में देश को तोड़ने का निमित्त बन रहे हैं। अब यदि यह बिल पास हो गया, तब वैसे ही जुल्म होंगे, जैसे कुछ अफ्रीकी देशों में होते हैं। सबकी आंखें और कान बंद होंगे।
       एक मुद्दा और भी है जिसका अवलोकन भी यहां कर लेना चाहिए। वह है आरक्षण कानून। इसमें अंकित सभी जातियां किस श्रेणी में आएंगी? हिन्दुत्व कोई धर्म या सम्प्रदाय नहीं है। क्या इन सभी जातियों को भी अल्प संख्यक माना जाएगा। क्या सिख, ईसाई, मुस्लिम आदि सम्प्रदायों के बीच आपसी हिंसा होने पर साम्प्रदायिक हिंसा के आरोप से सभी मुक्त रहेंगे? तब क्या यह सच नहीं है कि इस कानून का उपयोग येन-केन प्रकारेण बहुसंख्यकों को आतंकित करने के लिए किया जायेगा।
       इसकी अन्य कोई भूमिका दिखाई ही नहीं देती। आज जो कानून हमारे संविधान में हैं, वे हर परिस्थिति से निपटने के लिए सक्षम हैं। जरूरत है उन्हें ईमानदारी और बिना भेदभाव लागू करने की। जो साठ साल में तो संभव नहीं हो पाया। राष्ट्रीय एकता परिषद भी यही कार्य देखती है। सजा का अघिकार नई समिति को भी नहीं होगा। निश्चित ही है कि इसका राजनीतिक दुरूपयोग ही होगा। इसके पास स्वतंत्र पुलिस भी होगी। मध्यप्रदेश में लोकायुक्त पुलिस जो कर रही है, उसे कौन नहीं जानता। सरकारें, राजनेताओं तथा अपने चहेतों को मंत्र देकर बिठाती जाएंगी।
       मजे की बात यह है कि अल्पसंख्यक समूह की व्याख्या में एसटी, एससी को भी शामिल किया गया है। अर्थात उन्हें बहुसंख्यकों के समूह से बाहर निकाल दिया। तब अन्य आरक्षित वर्गो को कैसे साथ रखा जा सकेगा? यदि उनको भी अल्पसंख्यक मान लिया जाए तो, बहुसंख्यक कोई बचेगा ही नहीं। ब्राह्मण एवं राजपूत भी आंदोलन करते रहते हैं आरक्षण के लिए। उनको भी दे दो। तब आज के अल्पसंख्यक ही कल बहुसंख्यक भी हो जाएंगे।
       क्या होगा, क्या नहीं होगा यह अलग बात है। प्रश्न यह है कि मोहल्ले के कोई दो घर मिलकर नहीं रह पाएंगे। बल्कि दुश्मन की तरह एक-दूसरे को तबाह करने के सपने देखने लग जाएंगे। अल्पसंख्यक पड़ोसियों को पूरी छूट होगी कि देश में आएं, कानून से मुक्त रहकर अपराध करें और समय के साथ देश को हथिया लें। धन्य-धन्य मेरा लोकतंत्र एवं उसके प्रहरी!!!

गुलाब कोठारी



श्री विजय कुमार शर्मा

       सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद द्वारा प्रस्तावित इस विधेयक को केन्द्रीय सरकार ने स्वीकार कर लिया है। इस विधेयक का उद्देश्य बताया गया है कि यह देश में साम्प्रदायिक हिंसा को रोकने में सहायक सिद्ध होगा। इसको अध्ययन करने पर ध्यान में आता है कि यदि दुर्भाग्य से यह पारित हो जाता है तो इसके परिणाम केवल विपरीत ही नहीं होंगे अपितु देश में साम्प्रदायिक विद्वेष की खाई इतनी चौडी हो जायेगी जिसको पाटना असम्भव हो जायेगा। यहां तक कि एक प्रमुख सैक्युलरिस्ट पत्रकार, शेखर गुप्ता ने भी स्वीकार किया है कि,”इस बिल से समाज का साम्प्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण होगा। इसका लक्ष्य अल्पसंख्यकों के वोट बैंक को मजबूत करने के अलावा हिन्दू संगठनों और हिंदू नेताओं का दमन करना है। जिस प्रकार सरकार की रुचि भ्रष्टाचार को समाप्त करने की जगह भ्रष्टाचार को संरक्षण देकर उसके विरुद्ध आवाज उठाने वालों के दमन में है,उसी प्रकार यह सरकार साम्प्रदायिक हिंसा को रोकने की जगह हिंसा करने वालों को संरक्षण और उनके विरुद्ध आवाज उठाने वाले हिंदू संगठनों और उनके नेताओं को इसके माध्यम से कुचलना चाहती है। इस अधिनियम के माध्यम से केन्द्र राज्य सरकारों के कार्यों में हस्तक्षेप कर देश के संघीय ढांचे को ध्वस्त कर देगा। यह भारतीय संविधान की मूल भावना को तहस-नहस करता हुआ भी दिखाई दे रहा है। यह अधिनियम एक नई तानाशाही को तो जन्म देगा ही, यह हिन्दू समाज की भावनाओं और उनको वाणी देने वाले हिन्दू संगठनों को भी कुचल देगा।
       जिस राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की अनुशंसा (आदेश) पर इस विधेयक को लाया जा रहा है, वह एक समानांतर सरकार की तरह काम कर रही है। यह न तो एक चुनी हुई संस्था है और न ही इसके सभी सदस्य जनता के द्वारा चुने गये प्रतिनिधी हैं। सरकार जो तर्क “सिविल सोसाईटी” या अन्य जन संगठनों के विरुद्ध प्रयोग करती है, वह स्वयं उस के विपरीत आचरण कर रही है। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद एक असंवैधानिक महाशक्ति है जो बिना किसी जवाबदेही के सलाह की आड में आदेश देती है। केन्द्र सरकार दासत्व भाव से उनके आदेशों को लागू करने के लिये हमेशा ही तत्पर रहती है। जिस ड्राफ्ट कमेटी ने इस विधेयक को बनाया है, उसके सदस्यों के चरित्र का विचार करते ही उनकी नीयत के बारे में किसी संदेह की गुंजाइश नहीं रहती है। इस समिती में 9 सद्स्य और उनके 4 सलाहकार हैं । इन सब में समानता के यही बिंदू है कि ये सभी हिंदू संगठनों के घोर विरोधी हैं , हमेशा गुजरात के हिन्दू समाज को कटघरे में खडा करने के लिये तत्पर रहते हैं और अल्पसंख्यकों के हितों का एकमात्र संरक्षक दिखने के लिये देश को भी बदनाम करने में संकोच नहीं करते। हर्ष मंडेर रामजन्मभूमि आन्दोलन और हिन्दू संगठनों के घोर विरोधी हैं। अनु आगा जो कि एक सफल व्यवसायिक महिला हैं, गुजरात में मुस्लिम समाज को उकसाने के कारण ही एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में पहचानी जाती । तीस्ता सीतलवाड और फराह नकवी की गुजरात में भूमिका सर्वविदित है। उन्होंने न केवल झूठे गवाह तैय्यार किये हैं अपितु देश विरोधियों से अकूत धनराशी प्राप्त कर झूठे मुकदमे दायर किये हैं और जांच प्रक्रिया को प्रभावित करने का संविधान विरोधी दुष्कृत्य किया है। आज इनके षडयंत्रों का पर्दाफाश हो चुका है, ये स्वयं न्याय के कटघरे में कभी भी खडे हो सकते हैं। ये लोग अपनी खीज मिटाने के लिये किसी भी सीमा तक जा सकते हैं। जो काम वे न्यायपालिका के माध्यम से नहीं कर सके ,ऐसा लगता है वे इस विधेयक के माध्यम से करना चाहते हैं। एक प्रकार से इन्होनें अपने कुत्सित इरादों को पूरा करने के लिये चोर दरवाजे का प्रयोग किया है। इनके घोषित-अघोषित सलाहकारों के नाम इनका भंडाफोड करने के लिये पर्याप्त हैं।” मुस्लिम इन्डिया” चलाने वाले सैय्यद शहाबुद्दीन, धर्मान्तरण करने के लिये विदेशों में भारत को बदनाम करने वाले जोन दयाल , हिन्दू देवी-देवताओं का खुला अपमान करने वाली शबनम हाशमी और नियाज फारुखी जिस समिती के सलाहकार हों , वह कैसा विधेयक बना सकते हैं इसका अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है। भारत के बडबोले मंत्री, कपिल सिब्बल द्वारा इस अधिनियम को सार्वजनिक करते हुए गुजरात के दंगों और उनमें सरकार की कथित भूमिका का उल्लेख करना सरकार की नीयत को स्पष्ट करता है। ऐसा लगता है कि सारी सैक्युलर ब्रिगेड मिलकर जो काम नहीं कर सकी, उसे सोनिया इस विधेयक के माध्यम से पूरा करना चाहती हैं। गुजरात के संदर्भ में सभी कसरतें व्यर्थ जा रही हैं। आरोप लगाने वाले स्वयं आरोपित बनते जा रहे हैं। कानून के शिकंजे में फंसने की दहशत से वे मरे जा रहे हैं। इस अधिनियम का प्रारूप देखने से ऐसा लगता है मानो उन्हीं चोट खाये इन तथाकथित मानवाधिकारवादी ने इसको बनाने के लिये अपनी कलम चलाई है। इस विधेयक को सार्वजनिक करने का समय बहुत महत्वपूर्ण है। कुछ दिन पूर्व ही अमेरिका के ईसाईयत के प्रचार के लिये बदनाम “अंतर्राष्ट्रीय धर्म स्वातंत्र्य आयोग” ने भारत को अपनी निगरानी सूची में रखा है। उन्होंनें भी गुजरात और ओडीसा के उदाहरण दिये हैं।मानावधिकार का दलाल अमेरिका मानवाधिकारों के सम्बंध में अमेरिका का दोगलापन जगजाहिर है। इस आयोग को चिंता है ओडिसा और गुजरात की घटनाओं की, परन्तु उसको कश्मीर के हिन्दुओं या मणिपुर और त्रिपुरा में ईसाई संगठनों द्वारा हिन्दुओं के नरसंहारों की चिंता क्यों नहीं होती? इससे भी बडे दुर्भाग्य का विषय यह है कि भारत के किसी सैक्युलर नेता नें अमेरिका को धमकाकर यह नहीं कहा कि उसको भारत के आन्तरिक मामलों में दखल देने का अधिकार नहीं है। भारत के मुस्लिम और ईसाई संगठनों नें इसका स्वागत किया है। इससे उनकी भारत बाह्य निष्ठा स्पष्ट होती है। इस बदनाम आयोग की रिपोर्ट के तुरन्त बाद इस विधेयक को सार्वजनिक करना, ऐसा लगता मानों ये दोनों एक ही जंजीर की दो कडिया हैं। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के गलत इरादों का पता इसी बात से लगता है कि इन्होंनें साम्प्रदायिक दंगों के कारणों का विश्लेषण भी नहीं किया। ड्राफ्ट समिति की स्दस्य अनु आगा ने अप्रैल ,2002 में कहा था,” यदि अल्पसंख्यकों को पहले से ही तुष्टीकरण और अनावश्यक छूटें दी गई हैं तो उस पर पुनर्विचार करना चाहिये। यदि ये सब बातें बहुसंख्यकों के खिलाफ गई हैं तो उनको वापस लेने का साहस होना चाहिये। इस विषय पर सार्वजनिक बहस होनी चाहिये।’(इन्डियन एक्स.,8 अप्रैल,2002) इन नौ वर्षों में अनु आगा ने इस विषय में कुछ नहीं किया। शायद उन्हें मालूम चल गया था कि यदि सत्य सामने आ गया तो ऐसा अधिनियम बनाना पडेगा जो प्रस्तावित अधिनियम के बिल्कुल विपरीत होगा।
       यह अधिनियम विदेशी शक्तियों के इशारे पर ही लाया गया है। ऐसा लगता है कि एक अन्तर्राष्ट्रीय षडयंत्र के आधार पर हिन्दू समाज, हिन्दू संगठनों और हिन्दू नेताओं को शिकंजे में कसने का प्रयास किया जा रहा है।

इस विधेयक के कुछ खतरनाक प्रावधान निम्नलिखित है-

[1] यह विधेयक साम्प्रदायिक हिंसा के अपराधियों को अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक के आधार पर बांटने का अपराध करता है। किसी भी सभ्य समाज या सभी राष्ट्र में यह वर्गीकरण स्वीकार्य नहीं होता। अभी तक यही लोग कहते थे कि अपराधी का कोई धर्म नहीं होता। अब इस विधेयक में क्यों साम्प्रदायिक हिंसा के अल्पसंख्यक अपराधियों को दंड से मुक्त रखा गया है? प्रस्तावित विधेयक का अनुच्छेद 8 अल्प्संख्यकों के विरुद्ध घृणा का प्रचार अपराध मानता है। परन्तु हिन्दुओं के विरुद्ध इनके नेता और संगठन खुले आम दुष्प्रचार करते हैं। इस विधेयक में उनको अपराधी नहीं माना गया है। इनका मानना है कि अल्पसंख्यक समाज का कोई भी व्यक्ति साम्प्रदायिक तनाव या हिंसा के लिये दोषी नहीं है। वास्तविकता ठीक इसके विपरीत है। भारत ही नहीं सम्पूर्ण विश्व में इनके धार्मिक नेताओं के भाषण व लेखन अन्य धर्मावलम्बियों के विरुद्ध विषवमन करते हैं। भारत में भी कई न्यायिक निर्णयों और आयोगों की रिपोर्टों में इनके भाषणों और कृत्यों को ही साम्प्रदायिक तनाव के मूल में बताया गया है। ओडीसा और गुजरात की जिन घटनाओं का ये बार-बार प्रलाप करते हैं, उनके मूल में भी आयोगों और न्यायालयों नें अल्पसंख्यकों की हिंसा को पाया है। मूल अपराध को छोडकर प्रतिक्रिया वाले को ही दंडित करना न केवल देश के कानून के विपरीत है अपितु किसी भी सभ्य समाज की मान्यताओं के खिलाफ है। स्वतंत्र भारत के इतिहास में कथित अल्पसंख्यक समाज द्वारा हिंदू समाज पर 1,50,000 से अधिक हमले हुए हैं तथा हिन्दुओं के मंदिरों पर लगभग 500 बार हमले हुए हैं। 2010 में बंगाल के देगंगा में हिंदुओं पर किये गये अत्याचारों को देखकर यह नहीं लगता कि यह भारत का कोई भाग है। बरेली और अलीगढ में हिन्दू समाज पर हुए हमले ज्यादा पुराने नहीं हुए हैं। एक विदेशी पत्रकार द्वारा विदेश में ही पैगम्बर साहब के कार्टून बनाने पर भारत में कई स्थानों पर हिन्दुओं पर हमले किसी से छिपे नहीं हैं। अपराधी को छोडना और पीडित को ही जिम्मेदार मानना क्या किसी भी प्रकार से उचित माना जा सकता है? एक अन्य सैक्युलर नेता,सैम राजप्पा ने लिखा है,” आज जबकि देश साम्प्रदायिक हिंसा से मुक्ति चाहता है, यह अधिनियम मानकर चलता है कि साम्प्रदायिक दंगे बहुसंख्यक के द्वारा होते हैं और उनको ही सजा मिलनी चाहिये। यह बहुत भेदभावपूर्ण है।”(दी स्टेट्समैन, 6 जून, 2011)

[2] अनुच्छेद 7 के अनुसार यदि एक मुस्लिम महिला के साथ दुर्व्यवहार होता है तो वह अपराध है, परन्तु हिन्दू महिला के साथ किया गया बलात्कार अपराध नहीं है जबकि अधिकांश दंगों में हिन्दू महिला की इज्जत ही निशाने पर रहती है।

[3] जिस समुदाय की रक्षा के बहाने से इस शैतानी विधेयक को लाया गया है, उसको इस विधेयक में” समूह” का नाम दिया है। इस समूह में कथित अल्पसंख्यकों के अतिरिक्त अनुसूचित जातियों और जनजातियों को भी शामिल किया गया है। क्या इन वर्गों में परस्पर संघर्ष नहीं होता? शिया-सुन्नी के परस्पर खूनी संघर्ष जगजाहिर हैं। इसमें किसकी जिम्मेदारी तय करेंगे? अनुसूचित जातियों के कई उपवर्गों में कई बार संघर्ष होते हैं,हालांकि इन संघर्षों के लिये अधिकांशतः ये सैक्युलर बिरादरी के लोग ही जिम्मेदार होते हैं। इन सबका यह मानना है कि उनकी समस्याओं का समाधान हिंदू समाज का अविभाज्य अंग बने रहने में ही हो सकता है। यह देश की अखण्डता और
हिन्दू समाज को भी विभक्त करने का षडयंत्र है। इन दंगों की रोकथाम क्या इस अधिनियम से हो पायेगी? इन संघर्षों को रोकने के लिये जिस सदभाव की आवश्यकता होती है, इस कानून के बाद तो उसकी धज्जियां ही उधडने वाली हैं।

[4] इस विधेयक में बहुसंख्यक हिन्दू समाज को कट्घरे में खडा किया गया है। सोनिया को ध्यान रखना चाहिये कि हिन्दू समाज की सहिष्णुता की इन्होनें कई बार तारीफ की है। कांग्रेस के एक अधिवेशन में इन्होनें कहा था कि भारत में हिन्दू समाज के कारण ही सैक्युलरिज्म जिंदा है और जब तक हिन्दू रहेगा भारत सैक्युलर रहेगा। विश्व में जिसको भी प्रताडित किया गया, उसको हिंदू नें शरण दी है। जब यहूदियों, पारसियों और सीरियन ईसाइयों को अपनी ही जन्मभूमि में प्रताडित किया गया था तब हिन्दू ने ही इनको शरण दी थी। अब उसी हिन्दू को निशाना बनाने की जगह साम्प्रदायिक तनावों के मूल को समझना चाहिये। सोनिया को वोट बैंक की चिंता छोडकर देशहित का विचार करना चाहिये। यदि ये सहिष्णु हिन्दू समाज को एक नरभक्षी दानव के रूप में दिखायेंगे तो साम्प्रदायिक वैमनस्य की खाई और चैडी हो जायेगी जिसे कोई नहीं पाट सकेगा। सलाहकार परिषद के ही एक सदस्य, एन.सी. सक्सेना ने कहा था ,” यदि अल्पसंख्यक समुदाय के किसी व्यक्ति द्वारा बहुसंख्यक समाज के किसी व्यक्ति पर अत्याचार होता है तो यह विषय भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत आयेगा, प्रस्तावित अधिनियम में नहीं।” (दी पायनीयर, 23 जून, 2011) इस कानून का संरक्षण केवल बहुसंख्यक समाज के लिये नहीं , अल्पसंख्यक समाज के लिये भी है। फिर इस अधिनियम की आवश्यक्ता ही क्या है? क्या इससे उनके इरादों का पर्दाफाश नहीं हो जाता ?

[5] इस विधेयक में साम्प्रदायिक हिंसा की परिभाषा दी है,” वह कृत्य जो भारत के सैक्युलर ताने बाने को तोडेगा।” भारत में सैक्युलरिज्म की परिभाषा अलग-अलग है। भारतीय संविधान में या इस विधेयक में कहीं भी इसे परिभाषित नहीं किया गया। क्या अफजल गुरू को फांसी की सजा से बचाना,आजमगढ जाकर आतंकियों के हौंसले बढाना, बटला हाउस में पुलिस वालों के बलिदान को अपमानित कर आतंकियों की हिम्मत बढाना,मुम्बई हमले में बलिदान हुए लोगों के बलिदान पर प्रश्नचिंह लगाना, मदरसों में आतंकवाद
के प्रशिक्षण को बढावा देना, बंग्लादेशी घुसपैठियों को बढावा देना सोनिया की निगाहों में सैक्युलरिज्म है और इनके विरुद्ध आवाज उठाना सैक्युलर ताने-बाने को तोडना ? ये लोग सैक्युलरिज्म की मनमानी परिभाषा देकर क्या देशभक्तों को प्रताडित करना चाहते हैं ?

[6] विधेयक के उपबंध 74 के अनुसार यदि किसी व्यक्ति के ऊपर घृणा सम्बन्धी प्रचार या साम्प्रदायिक हिंसा का आरोप है तो उसे तब तक दोषी माना जायेगा जब तक कि वह निर्दोष सिद्ध न हो जाये। यह उपबंध संविधान की मूल भावना के विपरीत है। भारत का संविधान कहता है कि जब तक अपराध सिद्ध न हो जाये तब तक आरोपी निर्दोष माना जाये। यदि यह विधेयक पास हो जाता है तो किसी को भी जेल में भेजने के लिये उस पर केवल आरोप लगाना पर्याप्त रहेगा। उसके लिये अपने आप को निर्दोष सिद्ध करना कठिन ही नहीं असम्भव हो जायेगा। इस विधेयक में यह भी प्रावधान है कि अगर किसी हिन्दू के किसी व्यवहार से उसे मानसिक कष्ट हुआ है तो वह भी प्रताडना की श्रेणी में आयेगा। इसका अर्थ है कि अब किसी अल्पसंख्यक नेता के कुकृत्य या देश विरोधी काम के बारे में नहीं कहा जा सकता।

[7] यदि किसी राज्य के कर्मचारी के विरुद्ध इस प्रकार का आरोप है तो उसके लिये उस राज्य का मुख्यमंत्री भी जिम्मेदार ठहराया जा सकता है क्योंकि वह उसे नहीं रोक सका है। इसका अर्थ है कि अब झूठी गवाही के आधार पर किसी भी विरोधी पक्ष के मुख्यमंत्री को फंसाना अब ज्यादा आसान हो जायेगा। जो मुख्यमंत्री अब तक इनके जाल में नहीं फंस पा रहे थे, अब उनके लिये जाल बिछाना ज्यादा आसान हो जायेगा।

[8] यदि किसी संगठन का कोई कार्यकर्ता आरोपित है तो उस संगठन का मुखिया भी जिम्मेदार होगा क्योंकि वह भी इस अपराध में शामिल माना जायेगा। अब ये लोग किसी भी हिंदू संगठन व उनके नेताओं को आसानी से जकड सकेंगे। कसर अब भी नहीं छोड रहे परन्तु अब वे अधिक मजबूती से इन पर रोक लगा कर मनमानी कर सकेंगे।

[9] यदि दुर्भाग्य से यह विधेयक पास हो जाता है तो राज्य सरकार के अधिकारों को केन्द्र सरकार आसानी के साथ हडप सकती है। कानून व्यवस्था राज्य सरकार का विषय होती है। केन्द्र सरकार ऐसे विषयों पर सलाह दे सकती है या “एड्वाइजरी” जारी कर सकती है। इससे भारत का संघीय ढांचा सुरक्षित रहता है। परन्तु अब संगठित साम्प्रदायिक और किसी सम्प्रदाय को लक्ष्य बनाकर की जाने वाली हिंसा राज्य के भीतर आंतरिक उपद्रव के रूप में देखी जायेगी। पहले केन्द्र सरकार की मंशा अनुच्छेद 355 का उपयोग कर राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की थी। परन्तु अब इस कदम को वापस लेकर वे राजनीतिक दलों के विरोध की धार को कुंद करना चाहते हैं। परन्तु इनके राज्य सरकारों को कुचलने के इरादों में कोई कमी नहीं आयी है।

[10] प्रस्तावित अधिनियम में निगरानी व निर्णय लेने के लिये जिस प्राधिकरण का प्रावधान है उसमें 7 सदस्य होंगे। अध्यक्ष, उपाध्यक्ष समेत इन 7 में से 4 सदस्य अल्पसंख्यक वर्ग के होंगे। क्या इससे परस्पर अविश्वास नहीं बढेगा? इसका मतलब यह स्पष्ट है कि हर व्यक्ति ,चाहे किसी भी पद पर हो, केवल अपने समुदाय की चिंता करता है। इस चिंतन का परिणाम क्या होगा इस पर देश को अवश्य विचार करना होगा। किसी न्यायिक प्राधिकरण का साम्प्तदायिक आधार पर विभाजन देश को किस ओर ले जायेगा ?

[11] इस प्राधिकरण को असीमित अधिकार दिये गये हैं। ये न केवल पुलिस व सशस्त्र बलों को सीधे निर्देश दे सकते हैं अपितु इनके सामने दी गई गवाही न्यायालय के सामने दी गई गवाही मानी जायेगी। इसका अर्थ है कि तीस्ता जैसी झूठे गवाह तैय्यार करने वाली अब अधिक खुल कर अपने षडयंत्रों को अन्जाम दे सकेंगी।

[12] अनुच्छेद 13 सरकारी कर्मचारियों पर इस प्रकार शिकन्जा कसता है कि वे मजबूरन अल्पसंख्यकों का साथ देने के लिये मजबूर होंगे चाहे वे ही अपराधी क्यों न हों।

[13] यदि यह विधेयक लागू हो जाता है तो किसी भी अल्पसंख्यक व्यक्ति के लिये किसी भी बहुसंख्यक को फंसाना बहुत आसान हो जायेगा। वह केवल पुलिस में शिकायत दर्ज करायेगा और पुलिस अधिकारी को उस हिन्दु को बिना किसी आधार के भी गिरफ्तार करना पडेगा। वह हिन्दू किसी सबूत की मांग नहीं कर सकता क्योंकि अब उसे ही अपने को निरपराध सिद्ध करना है। वह शिकायतकर्ता का नाम भी नहीं पूछ सकता। अब पुलिस अधिकारी को ही इस मामले की प्रगति की जानकारी शिकायतकर्ता को देनी है जैसे कि वह उसका अधिकारी हो। शिकायतकर्ता अगर यह कहता है कि आरोपी के किसी व्यवहार, कार्य या इशारे से वह मानसिक रूप से पीडित हुआ है तो भी आरोपी दोषी माना जायेगा। इसका अर्थ है कि अब कोई भी किसी मौलवी या किसी पादरी के द्वारा किये गये किसी दुष्प्रचार की शिकायत भी नहिं कर सकेगा न ही वह उनके किसी घृणास्पद साहित्य का विरोध कर सकेगा।

[14] इस विधेयक के अनुसार अब पुलिस अधिकारी के पास असीमित अधिकार होंगे। वह जब चाहे आरोपी हिन्दू के घर की तलाशी ले सकता है। यह अंग्रेजों के द्वारा लाये गये कुख्यात रोलेट एक्ट से भी खतरनाक सिद्ध हो सकता है।

[15] इस विधेयक की धारा 81 में कहा गया है कि ऐसे मामलों नियुक्त विशेष न्यायाधीश किसी अभियुक्त के ट्रायल के लिये उसके समक्ष प्रस्तुत किये बिना भी उसका संज्ञान ले सकेगा और उसकी संपत्ति को भी जब्त कर सकेगा।

[16] किसी अल्पसंख्यक के व्यापार में बाधा डालना भी इसमें अपराध है। यदि कोई मुसलमान किसी हिंदू की सम्पत्ति को खरीदना चाहता है और वह हिंदू मना करता है तो इसमें वह अपराध बन जायेगा।

[17] अब हिन्दू को इस अधिनियम में इस कदर कस दिया जायेगा कि उसको अपने बचाव का एक ही रास्ता दिखाई देगा कि वह धर्मांतरण को मजबूर हो जायेगा। इसके कारण धर्मांतरण की गतिविधियों में जबर्दस्त तेजी आयेगी। इस विधेयक के कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों का ही विश्लेषण किया जा सका है। जैसा चित्र अभी तक सामने आया है यदि यह पास हो जाता है तो परिस्थिती और भी भयावह होगी। आपात काल में किये गये मनमानीपूर्ण निर्णय भी फीके पड जायेंगे। हिन्दू का हिन्दू के रूप में रहना और भी मुश्किल हो जायेगा। मनमोहन सिंह ने पहले ही कहा था कि देश के संसाधनों पर मुसलमानों का पहला अधिकार है। यह विधेयक इस कथन का नया संस्करण है। इस विधेयक के विरोध में एक सशक्त आंदोलन खडा करना पडेगा तभी इस तानाशाहीपूर्ण कदम पर रोक लगाई जा सकती है।

(प्रिय अग्रज श्री विजय कुमार शर्मा की प्रेरणा व सहयोग से)









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